व्यंग में कहा जाता है, और आपने शायद पढ़ा भी हो, कि भारत में संडास से ज़्यादा मोबाइल फ़ोन हैं। अगर भारत में हर व्यक्ति के पास मल त्यागने के लिए संडास हो तो कैसा रहे? लाखो लोग शहर और कस्बो में शौच जाने के लिए जगह तलाशते हैं, और मल के साथ गरिमा भी त्यागनी पड़ती है। महिलाएं जो कठिनाई झेलती हैं उसे बतलाना भी कठिन है। शर्मसार वो भी होते हैं जिन्हे दूसरों को खुले में शौच जाते हुए देखना पड़ता है। तो कितना अच्छा हो कि हर किसी को संडास मिले। ऐसा करने के लिए कई लोगों ने भरसक कोशिश की है, जैसे गुजरात में ईश्वरभाई पटेल का बनाया सफ़ाई विद्यालय और बिंदेश्वरी पाठक के सुलभ शौचालय। लेकिन अगर हर भारतीय के पास शौचालय हो जाए तो इसका एक बहुत बुरा परिणाम भी निश्चित ही होगा। हमारे सारे जल स्रोत—नदियां और उनके मुहाने, छोटे–बड़े तालाब, जो पहले से ही बुरी तरह दूषित हैं—पूरी तरह तबाह हो जाएंगे। आज तो हमारे देश में आधे से भी कम लोगों के पास शौचालय की सुविधा है। इनसे ही जितना मैला पानी गटर में जाता है उसे साफ़ करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है। परिणाम आप किसी भी नदी में देख सकते है। जितना बड़ा शहर उतने ही ज्यादा शौचालय और उतनी ही दूषित नदियां। दिल्ली में यमुना हो चाहे बनारस में गंगा। जो नदियां हमारी मान्यता में पवित्र हैं वो वास्तव में गटर बन चुकी हैं। सरकारो ने दिल्ली और बनारस जैसे शहरों में अरबों रुपए खर्च कर मैला पानी साफ़ करने के संयन्त्र बनाए हैं, जो सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लांट कहलाते है। पर नदियां दूषित ही बनी हुई हैं। यह सब संयन्त्र दिल्ली जैसे सत्ता के अड्डे में गटर का पानी बिना साफ़ किए यमुना में उढेल देते हैं। हमारी बड़ी आबादी इसमे बड़ी समस्या है। जितने शौचालय भारत में चाहिए उतने अगर बन गए तो घनघोर जल संकट भी खड़ा हो जाएगा। पर नदियों का प्रदूषण का खास कारण शौचालयों से निकला मैला पानी है। जितने धनवान लोग उतने ही आलीशान शोचालय और उतना ही ज़्यादा मैला पानी। ग़रीब लोग जो खुले में पाखाने जाते हैं उनका मल गटर तक पहुँचता ही नहीं है, उनके पास सीवर की सुविधा नहीं है। फिर भी जब यमुना को साफ़ करने का जिम्मा सर्वोच्च न्यायालय ने उठाया तो झुग्गी में रहने वालो को उजाड़ा। न्यायधीशों ने अपने आप से ये सवाल नहीं किया कि जब सर्वोच्च न्यायालय में फ़्लश चलाते हैं तो यमुना के साथ कितना न्याय करते हैं।