डाॅ. महेन्द्रभटनागर की पुस्तक ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद पढ़कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। महेन्द्रभटनागर जी ने प्रेमचंद के जीवन-दर्शन और मानवतावादी पक्ष का बहुत उत्तम विश्लेषण किया है। वे मानते हैं, “प्रेमचंद मानवतावादी लेखक थे। गांधीवादी या साम्यवादी सिद्धान्तों से उन्होंने सीधी प्रेरणा ग्रहण नहीं की। उन्होंने जो कुछ जाना, सीखा, लिया; वह सब अपने अनुभव मात्र से। इसीलिए उनके साहित्य में अपरास्त शक्ति है। गांधीवाद और साम्यवाद कोई मानवता के विरोधी नहीं हैं। अतः प्रेमचंद के विचारों में जगह-जगह दोनों की झलक मिल जाती है। लेकिन उनका मानवतावाद सर्वत्र उभरा दीखता है। यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि प्रेमचंद पूर्णरूप से मानवतावादी थे। उनके उपन्यासों में और लेखों में जड़-सम्पत्ति मोह-चाहे वह परम्परागत सुविधा के रूप में हो, जमीदारी या महाजनी वृत्ति का परिणाम हो, या उच्चतर पेशों से उपलब्ध हो - मानव की स्वाभाविक सद्वृत्तियों को रुद्ध करता है। प्रेमचंद ने सचाई और ईमानदारी को मनुष्य का सबसे बड़ा उन्नायक गुण समझा है। प्रेम उनकी दृष्टि में पावनकारी तत्त्व है। जब वह मनुष्य में सचमुच उदित होता है तो उसे त्याग और सचाई की ओर उन्मुख करता है। महेन्द्रभटनागर जी ने बड़ी कुशलतापूर्वक प्रेमचंद की इस मानवतावादी दृष्टि का विश्लेषण किया है। उनका यह कथन बिल्कुल ठीक है कि प्रेमचंद ने औद्योगिक नैतिकता का वर्णन कर उद्योगपतियों की मनोवृत्ति के विरुद्ध जन-मत तैयार किया है।’ उन्होंने उस मूक जनता का पक्ष लिया है जो दलित है, शोषित है, और निरुपाय है। पुस्तक में प्रेमचंद के उपन्यासों और लेखों से उद्धरण देकर उन्होंने इस बात का स्पष्टीकरण किया है। प्रेमचंद जी साहित्य सर्जक थे। उन्होंने केवल पात्रों के मुँह से ही विचार नहीं व्यक्त किये हैं बल्कि पात्रों और घटनाओं के जीवन्त गतिमय संघटना के द्वारा अपने मत की व्यंजना की है। महेन्द्रभटनागर जी ने इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया है। वे सीधे प्रेमचंद की कलम से निकले हुए विविध प्रसंगों दे उद्-गारों से ही अपने वक्तव्य का समर्थन करते हैं। उनके निष्कर्ष स्वीकार योग्य हैं, परन्तु साहित्य के विद्यार्थी की सभी जिज्ञासाओं को वे संतुष्ट नहीं करते। ऐसा जान पड़ता है कि समस्याओं का रूप स्पष्ट करके प्रेमचंद के उद्गारों से उनके समाधान की ओर इंगित करना ही उनका लक्ष्य है। इस कार्य को उन्होने बड़े परिश्रम और कौशल से सम्पन्न किया है। इस दिशा में उनका प्रयत्न सफल हुआ है। पुस्तक बहुत उपयोगी हुई है। प्रेमचंद के विचारों को उन्होंने बड़ी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ व्यक्त किया है। मुझे आशा है कि साहित्य-रसिक और समाज-सेवी इससे समान रूप से आनन्द पा सकेंगे। हमारे देश की बहु-विचित्र समस्याओं का इसमें उद्घाटन हुआ है और प्रेमचंद जैसे मनीषी का दिया हुआ समाधान इससे स्पष्ट हुआ है। महेन्द्रभटनागर जी से और सुन्दर रचनाओं की आशा सहृदयजन करेंगे। मेरी शुभकामना है कि परमात्मा उन्हें शीघ्र जीवन, सुन्दर स्वास्थ्य और अधिकाधिक शक्ति प्रदान करे। दिनांक-24.11.57 .... हज़ारी प्रसाद द्विवेदी अध्यक्ष- हिन्दी-विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचद मेरा शोध-प्रबन्ध है। जिसे मैंने श्रद्धेय आचार्य विनयमोहन शर्मा जी के निर्देशन में लिखकर, ‘नागपुर विश्वविद्यालय को, 1957 में, प्रस्तुत किया था। इस प्रबन्ध में प्रेमचंद जी के मात्र औपन्यासिक दृष्टिकोण पर विस्तार से विमर्श किया गया है तथा उन्हें समस्यामूलक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। प्रतिपाद्य विषय से सम्बन्धित जितने तथ्यों और तर्कों को प्रस्तुत करना आवश्यक था; प्रायः उन सभी को विवेचना और विश्लेषण का आधार बनाया गया है। मात्र मौजू व युक्तियुक्त उद्धरण देकर निष्कर्षों की पुष्टि की गयी है। उद्धरण-बहुलता है ज़रूर; किन्तु उनकी उपादेयता सिद्ध है। इनसे पाठकों को, विविध विषयों पर, एक ही स्थान पर, प्रेमचंद जी के समस्त उपन्यासों में अभिव्यक्त उनके विचारों को जानने-पढ़ने की सुविधा भी उपलब्ध हुई है। प्रेमचंद जी विश्व के प्रमुख उपन्यासकारों में स्थान पाने के अधिकारी हैं। उनकी उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता उनकी कृतियों के कलात्मक मूल्य का असंदिग्ध प्रमाण है। समस्यामूलक तत्त्व पर दृष्टिक्षेप करने पर ही प्रेमचंद जी के उपन्यासों का वास्तविक मूल्यांकन सम्भव है। आशा है, ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ की स्थापना को समीक्षक और शोधार्थी परखेंगे।